गांव पर कविता
गांव का चौराहा खुद को अकेला देख मायूस सा हो गया ,
उन लोगों को शहर जाते देख जैसे खाली सा हो गया !
उन लोगों को शहर जाते देख जैसे खाली सा हो गया !
कभी उन बच्चों के खिलखिलाहट से गूंजता था जो ,
आज बड़ी बड़ी इमारतों के शोर से खामोश सा हो
गया !
आज बड़ी बड़ी इमारतों के शोर से खामोश सा हो
गया !
एक समय जहां रहती थी लोगों की चहल-पहल पूरे दिन ,
आज वक्त नहीं मिला किसी को तो सुनसान सा हो गया !
आज वक्त नहीं मिला किसी को तो सुनसान सा हो गया !
रंग जाता था जो होली के दिन इंद्रधनुष के रंग में ,
आज नहीं है रंग लगाने वाला कोई तो बेरंग सा हो गया !
आज नहीं है रंग लगाने वाला कोई तो बेरंग सा हो गया !
कभी पूरे गांव की औरतें दीपावली में दिया जलाया करती थी जहा ,
आज शहर की रोशनी से मानो अंधकार सा हो गया !
आज शहर की रोशनी से मानो अंधकार सा हो गया !
बेवजह हंसता था जो कभी उन बुड्ढों के वाहियात चुटकुले पर भी ,
आज बेटा उनको भी शहर ले गया तो रोता चेहरा मासूम सा हो गया !
आज बेटा उनको भी शहर ले गया तो रोता चेहरा मासूम सा हो गया !
कुछ अलग सा माहौल बनता था जब रात को बच्चे बूढ़े छोटे बड़े सब बैठकर वहां करते थे दुनिया भर की बातें ,
आज जब शहर की महफिल में उसने खुद को अंजान पाया तो एक पल में जैसे पराया सा हो गया !
- Arjun Kapdi
गांव पर कविता पढ़ी, अच्छी लगी।
ReplyDeleteSare kabita bahat achhe hai
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